Tuesday, September 19, 2017

हिंदी पत्रकारिता का तीर्थ पराड


देश में हिदी पत्रकारिता का पहला अध्याय ही उदंत मार्तंड एवं बाबूराव विष्णु पराड़कर से शुरु होता है। उदंत मार्तंड 1826 में कोलकाता (तब कलकत्ता) से जुगुलकिशोर सुकुल द्वारा प्रकाशित किया गया हिंदी का प्रथम समाचार पत्र था। जबकि बाबूराव विष्णु पराड़कर को हिंदी पत्रकारिता के भीष्म पितामह, अर्थात हिंदी पत्रकारिता को दिशा देनेवाले व्यक्ति के रूप में जाना जाता है। पराड़कर का जिक्र आता है, तो उनके द्वारा संपादित समाचारपत्रों आज, संसार, हिंदीबंगवासी, भारतमित्र आदि का भी जिक्र आता है। उन्होंने जिस नगर में जीवन के अधिकांश वर्ष गुजारे, उस काशी का भी जिक्र आता है। लेकिन उनके पैतृक गांव का जिक्र कहीं नहीं आता।  में राष्ट्रीय दूरदर्शन द्वारा उनपर बनाए गए एक वृत्तचित्र के फिल्मांकन में भी नागरी प्रचारिणी सभा, काशी के पराड़कर निवास, पराड़कर स्मृति भवन, आज सहित कई और स्थानों का उल्लेख किया गया है। लेकिन उनके पैतृक गांव पराड का कोई चित्र इस वृत्तचित्र में भी नहीं दिखता। जबकि इस वृत्तचित्र का शोधकार्य बाबूराव विष्णु पराड़कर के पौत्र एवं वरिष्ठ पत्रकार आलोक पराड़कर ने ही किया था। वास्तव में ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि पराड़कर की तीसरी या चौथी पीढ़ी में से कोई भी संभवतः पराड़ कभी गया ही नहीं है।

इसे संयोग ही कहेंगे कि पिछले वर्ष काशी के वरिष्ठ पत्रकार एवं काशी विद्यापीठ में पत्रकारिता विभाग के निदेशक रहे प्रोफेसर राममोहन पाठक जब किसी व्याख्यान के सिलसिले में महाराष्ट्र के जलगांव स्थित उत्तर महाराष्ट्र विद्यापीठ गए तो उनकी मुलाकात मराठी अखबार सकाल में लंबे समय तक संपादक रहे 83 वर्षीय एस.के.कुलकर्णी से हो गई। इस मुलाकात में जब महाराष्ट्र के कोकण का जिक्र आया तो प्रोफेसर पाठक ने कुलकर्णी से पराड़कर के गांव के बारे में जिज्ञासा व्यक्त की। कुलकर्णी ने उस समय तो पराड गांव की भौगोलिक जानकारी से अनभिज्ञता जताई, लेकिन यह आश्वासन जरूर दिया कि वह इस बारे में जानकारी हासिल कर सूचित करेंगे। कुछ दिनों में एस.के.कुलकर्णी ने यह जानकारी हासिल भी कर ली। इसी वर्ष मार्च में प्रोफेसर पाठक पुनः एक व्याख्यान के लिए ही कोल्हापुर गए। वहां एस.के.कुलकर्णी भी आए थे। दोनों विद्वानों ने कोल्हापुर से ही पराड जाने की योजना बनाई और करीब-करीब 125 किलोमीटर दूर पराड पहुंच भी गए। उन्हें इस कार्य में दैनिक पुढारी के प्रधान संपादक पद्मश्री प्रताप सिंह जाधव का भी सहयोग मिला। उन्होंने अपने कणकवली कार्यालय के जरिए प्रोफेसर पाठक एवं एस.के.कुलकर्णी को पराड तक पहुँचाने में मदद करवाई। पराडवासियों ने दोनों महानुभावों का बड़े उत्साह से स्वागत किया। वहां जाकर प्रोफेसर पाठक को पता चला कि अब गांव में पराड़कर के परिवार का कोई सदस्य नहीं रहता। यहाँ तक कि उनके घर का भी कोई नामनिशान नहीं है। हाँ, गांव के लोगों ने एक स्थान इंगित करते हुए यह जरूर बताया कि यहीं पराड़कर का पैतृक निवास हुआ करता था। गांव में कुछ वर्ष पहले तक पराड़कर के नाम पर एक प्राथमिक विद्यालय भी था। अब वह भी नहीं है। उसके स्थान पर जिला परिषद का एक स्कूल चल रहा है।

पराड गांव का दौरा प्रोफेसर पाठक के लिए जहाँ उत्साह जगानेवाला था, वहीं क्षुब्ध करनेवाला भी। उत्साह इसलिए कि उन्होंने हिंदी पत्रकारिता के भीष्म पितामह का पैतृक गांव ढूंढ लिया था। क्षोभ इस बात का कि उस गांव में पराड़कर जी की स्मृति का कोई चिह्न मौजूद नहीं है। जबकि हिंदी पत्रकारिता से लेकर स्वतंत्रता आंदोलन तक पराड़कर जी का योगदान कम नहीं रहा। संभवतः इसी क्षोभ के वशीभूत होकर उन्होंने इन पंक्तियों के लेखक से पराड गांव में पराड़कर जी की स्मृति में कोई स्मारक बनाने का प्रयास किए जाने की चर्चा की। प्रोफेसर पाठक इस कार्य की अगुवाई मुंबई प्रेसक्लब को सौंपना चाहते थे। ताकि पराड में कुछ सार्थक काम हो सके। इसके लिए वह एक बार मुंबई प्रेसक्लब आकर उसके सचिव धर्मेंद्र जोरे से भी मिलकर गए। प्रेसक्लब इसके लिए सहर्ष राजी भी हो गया। प्रोफेसर पाठक ने इस पुण्य कार्य में काशी पत्रकार संघ को भी शामिल कर लिया। काशी पत्रकार संघ का कार्यालय ही पराड़कर भवन के नाम से जाना जाता है। स्वयं प्रोफेसर पाठक करीब 34 वर्ष पहले इस संघ के अध्यक्ष रह चुके हैं। उन्होंने उसी समाचारपत्र आज के साहित्य संपादक की भी जिम्मेदारी निभाई है, जिसके संपादक रहकर पराड़कर जी ने हिंदी पत्रकारिता को दिशा देने का काम किया।

पराड में पराड़कर स्मारक की रूपरेखा पर विचार करने के लिए पहले एक संगोष्ठी आयोजित करने का निश्चय किया गया। यह संगोष्ठी हिंदी दिवस की पूर्व संध्या 13 सितंबर, 2017 को मुंबई प्रेसक्लब में ही रखी गई। जिसमें मुंबई प्रेसक्लब के अलावा, काशी पत्रकार संघ के पदाधिकारियों एवं माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल के कुलाधिसचिव लाजपत आहूजा के अलावा और भी कई विद्वानों ने हिस्सा लिया। लाजपत आहूजा ने ही पराड में ऐसा स्मारक बनाने का सुझाव दिया जो न सिर्फ हिंदी पत्रकारिता के लिए, बल्कि मराठी, अंग्रेजी या किसी भी भाषा की पत्रकारिता के लिए शोध का केंद्र बने। बल्कि हिंदी पत्रकारों के लिए तो वह एक तीर्थ के रूप में याद की जाए।

महत्त्वपूर्ण था अगला दिन, 14 सितंबर, 2017, यानी इस वर्ष का हिंदी दिवस। इस बार का हिंदी दिवस हिंदी पत्रकारिता के भीष्म पितामह संपादकाचार्य बाबूराव विष्णु पराड़कर के पैतृक गांव में मनेगा, यह सोचकर हम सभी रोमांचित थे। मैंगलोर एक्सप्रेस से सात लोगों के शिष्टमंडल का आरक्षण एक माह पहले ही करवा लिया गया था। पराड पहुँचने के लिए मुंबई से गोवा की तरफ जानेवाले ट्रेन से कणकवली रेलवे स्टेशन पर उतरना पड़ता है। सुपरफास्ट ट्रेनों के लिए यह गोवा के मडगांव से ठीक पहले का स्टेशन है। यहां से मुंबई करीब 400 किलोमीटर पड़ता है, और गोवा सिर्फ 100 किलोमीटर। पराड पहुंचने के लिए कणकवली से भी नजदीक सिंधुदुर्ग रेलवे स्टेशन सिर्फ 15 किलोमीटर दूर है। लेकिन वहां सुपरफास्ट ट्रेनें नहीं रुकतीं। कणकवली महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री रह चुके नारायण राणे का गांव भी है। तरुण भारत के स्थानीय संस्करण के संपादक विजय शेट्टी के सहयोग से कणकवली शासकीय विश्रामगृह में स्नान-ध्यान एवं पराड तक जाने के लिए गाड़ी की व्यवस्था हो गई थी।

शिष्टमंडल में लेखक के अलावा, प्रोफेसर राममोहन पाठक, मुंबई प्रेसक्लब के प्रबंध समिति सदस्य एवं नवभारत टाइम्स के राजनीतिक संपादक अभिमन्यु शितोले, सकाल के पूर्व संपादक एवं 83 वर्ष की आयु में भी उत्साह से लबालब वरिष्ठ पत्रकार एस.के.कुलकर्णी, काशी पत्रकार संघ के अध्यक्ष सुभाष सिंह, वहां के महासचिव डॉ. अत्रि भारद्वाज, केंद्रीय विश्वविद्यालय पटना में पत्रकारिता विभाग के पूर्व विभागाध्यक्ष डॉ. किंशुक पाठक थे। समय कम था। हमें उसी दिन दोपहर बाद की जनशताब्दी ट्रेन से वापस मुंबई लौटना था। इसलिए जल्दी ही कणकवली से पराड के लिए रवाना हो गए। कणकवली से पराड की दूरी करीब 35 किलोमीटर है। यूँ तो पूरा कोंकण ही खुबसूरत है। खासतौर से बरसात के तुरंत बाद कोंकण जाना तो स्वर्ग की सैर करने जैसा ही लगता है। कणकवली से पराड जाने का मार्ग भी प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर है। काशी से आए सुभाष सिंह और डॉ. अत्रि भारद्वाज तो इस क्षेत्र की खुबसूरती पर बार-बार मोहित होते दिखे।

हम ठीक 10 बजे पेंडूर पहुंच गए। दरअसल ग्रामसभा का मुख्यालय पेंडूर गांव में ही है। सिंधुदुर्ग की मालवण तहसील की यह ग्रामसभा पांच गांवों – पराड, पेंडूर, खरारे, मोगरने एवं सोनारवाड़ा का मिलाकर बनी है। पूरी ग्रामसभा की आबादी 3,583 एवं अकेले पराड गांव की आबादी सिर्फ 389 है। कोंकण में वैसे भी उत्तर भारत की तरह कोई गांव बहुत बड़ा नहीं दिखाई देता। पहाड़ी क्षेत्र है। एक ही गांव में लोगों के घर थोड़ा दूर-दूर ही बने होते हैं। करीब 140 साल पहले जब पराड़कर जी के पिता विष्णु शास्त्री यह गांव छोड़कर काशी गए होंगे, तब तो यहां की आबादी काफी कम रही होगी। हमारे एक वरिष्ठ पत्रकार साथी मदन दामले के अनुसार तब कोंकण का यह क्षेत्र रत्नागिरि के नाम से जाना जाता था। पराड जाकर भी हम लोग इस तथ्य से अनभिज्ञ रह गए कि किन परिस्थितियों में विष्णु शास्त्री ने आवागमन के अत्यंत कम साधनों के बावजूद अपना गांव पराड छोड़कर काशी की ओर प्रस्थान करने की हिम्मत जुटाई होगी। बाबूराव विष्णु पराड़कर का जन्म तो काशी में ही 16 नवंबर, 1883 को हुआ। उन्होंने मैट्रिक की पढ़ाई भागलपुर से की और पत्रकारिता की शुरुआत कोलकाता (तब कलकत्ता) से हुई। फिर 1920 में वाराणसी वापस लौटने के बाद 12 जनवरी, 1955 तक उनका शेष जीवन हिंदी पत्रकारिता की सेवा करते हुए वाराणसी में ही बीता। यहीं उन्होंने दैनिक 'आज' का न सिर्फ लंबे समय तक संपादन किया, बल्कि इसी अखबार के जरिए स्वतंत्रता आंदोलन की आग में घी डालने का काम करते रहे। 


पेंडूर ग्रामसभा कार्यालय में सरपंच श्वेता फोंडेकर हमारे स्वागत के लिए मौजूद थी। क्षेत्र के कुछ पत्रकार भी आ गए थे। यहीं सिंधुदुर्ग पत्रकार संघ की जिला सचिव देवयानी वरसकर ने जानकारी दी कि सिंधुदुर्ग के जिला मुख्यालय ओरस में मराठी पत्रकारिता के शिखर पुरुष बालशास्त्री जांभेकर के भी एक भव्य स्मारक की योजना तैयार हो रही है। सिंधुदुर्ग की मिट्टी का असर देखिए कि जहां एक ओर उसने हिंदी पत्रकारिता को पराड़कर दिया वहीं मराठी पत्रकारिता को जांभेकर दिया। पूरे कोंकण की बात करें तो भगवान परशुराम की इस भूमि ने अनेक पत्रकार, लेखक और उच्चकोटि के राजनीतिज्ञ देश को दिए हैं। देवयानी ने ही सुझाव दिया कि पराड में पराड़कर जी के स्मारक निर्माण के लिए न सिर्फ एक स्थानीय समिति का गठन होना चाहिए, बल्कि इसके निर्माण के बाद उसकी देखरेख के लिए भी एक समिति होनी चाहिए। इसी ग्रामसभा कार्यालय में बाद में जिला परिषद के सदस्य संतोष सातविलकर और सलीम शेख से भी मुलाकात हुई। संयोग से पराड़कर जी के ही खानदान के एक व्यक्ति राजेंद्र पराड़कर इन दिनों उस क्षेत्र के खंड विकास अधिकारी (बीडीओ) हैं। उनसे भी मुलाकात हुई। हमारे शिष्टमंडल ने सरपंच श्वेता फोंडेकर को बाबूराव विष्णु पराडकर का एक फोटोफ्रेम किया हुआ चित्र भी भेंट किया।


ग्रामसभा कार्यालय से करीब एक किलोमीटर दूर है वह स्थान, जहां कभी पराड़कर जी का घर हुआ करता था। आज वहां कुछ भी नहीं है। इस स्थान पर जाकर पता चला कि पराड़कर जी वास्तव में महाराष्ट्रियन कुलकर्णी ब्राह्मण थे। पराड गांव का होने के कारण उनको पराड़कर कहा जाने लगा। उनके खानदान के कुछ लोगों के घर आसपास बने हुए हैं। पराड के ही जिला परिषद संचालित प्राथमिक विद्यालय में 99 वर्षीय वासुदेव देउजबले से मुलाकात हुई। वासुदेव जी अपने साथ ढेर सारे कागज लेकर आए थे, जिनसे ये साबित होता था कि पराड़कर जी इसी गांव के मूल निवासी थी। कभी विदेश डाक सेवा में रहे देउजबले जी भी 20 वर्ष से गांव में पराड़कर की स्मृति को पुनरुज्जीवन देने का प्रयास करते आ रहे हैं। लेकिन नक्कारखाने में तूती की आवाज भला कौन सुनता है। इसी उद्देश्य के लिए वहां हम लोगों को आया देख उनका चेहरा आज खिला हआ था।


करीब दो घंटे पराड में गुजारकर लौट रहे हम सभी के चेहरे भी खिले हुए थे। क्योंकि आज का हिंदी दिवस सार्थक रहा था। इस सार्थकता पर मुहर लगी 15 सितंबर को। जब हमारा यही शिष्टमंडल मुंबई प्रेसक्लब के सचिव धर्मेंद्र जोरे के नेतृत्व में मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़नवीस से मिलने पहुँचा। फड़नवीस को इस पुण्य कार्य का महत्त्व समझते तनिक देर नहीं लगी। उन्होंने आश्वस्त किया कि पराड़कर जी के गांव पराड में राज्य सरकार एक भव्य स्मारक अवश्य बनवाएगी। उन्होंने  स्मारक का स्वरूप निर्धारित करने की जिम्मेदारी हमारे शिष्टमंडल पर छोड़ते हुए हमें विदा किया।

-    ओमप्रकाश तिवारी
कोषाध्यक्ष – मुंबई प्रेसक्लब   
आवासीय पताः 07, जिप्सी बिल्डिंग, मेन स्ट्रीट, हीरानंदानी गार्डेन्स, पवई, मुंबई - 400076

Monday, January 12, 2015

इतना मुश्किल भी नहीं कचरे से कंचन बनाना

दैनिक जागरण के रविवारीय संस्करण में एक ही दिन में तीन समाचार पढ़ने को मिले। पहला, गंगा पुनरोद्धार मंत्री उमाभारती की स्वच्छ गंगा अभियान से लोक उपक्रमों के जुड़ने की अपील। दूसरा, जेटली करेंगे स्वच्छ भारत के लिए फंड जुटाने की व्यवस्था। और तीसरा, सीवेज से सस्ती खाद बनाएगा बार्क। इन तीनों खबरों को सम्मिलित रूप से देखें तो तीन बातें और स्पष्ट होती हैं। पहली, भारत और गंगा को स्वच्छ करने की चुनौती बड़ी है। दूसरा, इस चुनौती की गंभीरता हमारे मंत्रीगण भी समझ रहे हैं। और तीसरा, इस चुनौती का समाधान भी हमारे पास ही है और वह बहुत महंगा, या बहुत मुश्किल नहीं है। बशर्ते नए साधन-संसाधन तलाशने के बजाय अपने पास पहले से मौजूद साधनों, संसाधनों और संस्थानों की ओर देखा जाए और उन्हें एक-दूसरे से जोड़कर काम करने का रास्ता निकाला जाए।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वच्छता अभियान की औपचारिक शुरुआत करने से पहले 15 अगस्त, 2014 को लाल किले से कचरे से कंचन तैयार करने का आह्वान किया। दूसरी ओर देश के अग्रणी शोध संस्थान भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र (बीएआरसी) के एक वैज्ञानिक डॉ.शरद काले ने उन्हीं दिनों मुंबई प्रेसक्लब में पत्रकारों के समक्ष खुलासा किया कि किस तरह से शहर के कचरे को कंचन बनाया जा सकता है। शरद काले की यह परियोजना वास्तव में बीएआरसी सहित कई स्थानों पर सफलतापूर्वक प्रयोग में लाई भी जा रही है। बीएआरसी से बिल्कुल सटे टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस (टिस) के हॉस्टल की रसोई से निकलनेवाले जैविक कचरे को मीथेन गैस में बदलकर पुनः उसी रसोई में खाना पकाने के लिए उपयोग किया जा रहा है। मुंबई आईआईटी सहित कई और संस्थानों में ये प्रयोग अमल में लाया जा रहा है। डॉ. काले के अनुसार अनुमानतः देश में करीब एक लाख टन जैविक कचरा निकलता है। जबकि एक टन कचरे को री-साइकिल कर उससे 30 से 40 किलो मीथेन गैस एवं 50 से 60 किलो जैविक खाद तैयार की जा सकती है। यदि इस प्रक्रिया से गैस का उत्पादन बड़े पैमाने पर किया जाए तो उससे बिजली भी तैयार की जा सकती है। कई जगह तैयार की भी जा रही है। काले का मानना है कि पहले चरण में इसे देश के छात्रावासों, सरकारी कॉलोनियों, अस्पतालों, जेलों इत्यादि में शुरू किया जा सकता है। क्योंकि ऐसे संस्थानों को आसानी से ये परियोजनाएं लगाने के लिए केंद्रीय स्तर से निर्देश दिए जा सकते हैं और यहां से गीला व सूखा कचरा भी आसानी से अलग-अलग इकट्ठा किया जा सकता है। बाद में इन संस्थानों की परियोजनाओं को मॉडल के रूप में प्रस्तुत कर नगर व महानगरपालिकाओं को भी बड़ी परियोजनाएं लगाने के लिए प्रेरित किया जा सकता है।
डॉ.काले जहां शहर से निकलनेवाले गीले व सूखे कचरे का समाधान पेश करते हैं, वहीं बीएआरसी के ही रेडिएशन टेक्नोलॉजी डेवलपमेंट डिवीजन के प्रमुख डॉ. ललित वार्ष्णेय नालियों और नालों में बह रहे मल व कीचड़ (स्लज) की समस्या को समाधान में बदलने का सूत्र बताते हैं। हम अक्सर देखते हैं कि हमारे शहर की नगरपालिका का कोई कर्मचारी हमारे घर के बाहर बह रही नाली से काला-बदबूदार कचरा निकालकर नाली के किनारे रखकर चला जाता है। काले कीचड़ का यह ढेर कुछ दिनों तक जस का तस पड़ा रहता है। फिर कुछ दिनों बाद वही कर्मचारी हाथ गाड़ी में उसे भरकर कहीं ले जाता है। शहरों का गंदा पानी नदियों की ओर जाने से पहले अब उन्हें सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट (एसटीपी) से गुजारना अनिवार्य कर दिया गया है (हालांकि कई शहरों और महानगरों में यह अनिवार्यता भी कागज़ी साबित हो रही है)। केंद्र सरकार ने जगह-जगह एसटीपी इकाइयां स्थापित करने के लिए कई हजार करोड़ रुपए की योजना भी बनाई है। ये एसटीपी इकाइयां भी वैसा ही काला-बदबूदार कचरा बड़े पैमाने पर निकालती हैं, जैसा हमारे घरों के बाहर नगरपालिका का कर्मचारी निकालकर जाता है। एक अनुमान के मुताबिक दिल्ली और मुंबई जैसे महानगरों में प्रतिदिन 700 से 800 टन स्लज निकलता है। इसे कहां फेंका जाए, यह महानगरपालिकाओं के लिए एक बड़ी समस्या रहा है। डॉ. ललित वार्ष्णेय इस समस्या का समाधान प्रस्तुत करते हैं। सिर्फ 15 करोड़ की कुल लागत वाला एक संयंत्र स्थापित कर प्रतिदिन 100 टन सूखे स्लज को कृषि उपयोगी जैविक खाद में बदला जा सकता है। खाद भी ऐसी, जो एक रुपए प्रति किलो से भी कम कीमत पर किसानों को उपलब्ध कराई जा सके। वह भी जरूरत के अनुसार नाइट्रोजन-फास्फोरस जैसे कई अलग-अलग रूपों में। यानी शहरों का स्लज, समस्या नहीं, खेतों के लिए वरदान बन सकता है।
लेकिन बीएआरसी एवं इसके जैसे और भी कई संस्थानों के हमारे काबिल वैज्ञानिकों द्वारा तैयार तकनीकें तब तक अनुपयोगी ही साबित होती रहेंगी, जब तक हमारे नीतिनियंताओं की नजर उन तक न पहुंचे। वैज्ञानिकों की अपनी सीमाएं और संकोच होते हैं। इन शोध संस्थानों की गोपनीयता भी कई बार जनोपयोगी तकनीक के बाहर आने में बाधक बनती है। इनका उपयोग होता भी है तो इनकी खोज पर नजर गड़ाए बैठा कोई पूर्णतया व्यावसायिक संस्थान इन तकनीकों को लेकर एक रुपए की चीज 200 रुपए में बाजार तक पहुंचाता है। जबकि नेशनल प्रोजेक्ट्स कंस्ट्रक्शन कार्पोरेशन लि. (एनपीसीसी) जैसा पहले से मौजूद कोई सार्वजनिक क्षेत्र का उपक्रम (पीएसयू) अथवा कोई नवगठित पीएसयू ऐसी तकनीक का उपयोग राष्ट्रीय स्तर पर करना चाहे तो वह बड़े पैमाने पर नवयुवकों को प्रशिक्षण देकर उन्हें ऐसी इकाइयों में रोजगार भी दे सकता है, और हमारे शहरों को गंदगी से मुक्त भी करा सकता है। रही बात फंड जुटाने की, तो हाल ही में आईसीआईसीआई बैंक की 60वीं वर्षगांठ पर बोलते हुए प्रधानमंत्री ने सभी निजी एवं सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों से स्वच्छता अभियान से संबंधित उपक्रमों के लिए भी ऋण उपलब्ध कराने का आह्वान किया है। यदि सार्वजनिक क्षेत्र का कोई उपक्रम स्वयं इस क्षेत्र में सामने आने को तैयार हो, तो बैंकों को भी उसे फंड उपलब्ध कराने में कोई ऐतराज शायद ही हो। यदि कोई केंद्रीय संस्थान किसी ठोस योजना के साथ शहर के कचरे को जैविक खाद, उपयोगी गैस व बिजली तैयार करने के लिए आगे आए तो नगर व महानगरपालिकाएं भी अपनी सुस्ती त्यागने को तैयार दिखाई देंगी। क्योंकि आम जनता से सबसे पहला सामना महापौर, सभासदों और सरपंचों का ही होता है।
- ओमप्रकाश तिवारी